Tuesday, April 7, 2009

मकान

जब से मेरे कान थोड़ा परिपक्व ही हुए थे
और मस्तिष्क शब्दों के रहस्य समझने लगा था ,
मुझे उस समय की हर बात अक्षरथः याद है ।

मुझे याद है , जब हमारा मकान बन रहा था

तो माँ से पिताजी ने बड़ी आत्मीयता से कहा था
कि ये मकान तुमारी धरोहर , मेरी स्मृति रहेगा
इसीलिए इतनी लगन से बनवा रहा हूँ ।

आज मैं सोचता हूँ तो मुझे लगता है कि
यह मकान मेरी वास्तव में पितृ - स्मृति है
और ये बात मुझसे ज्यादा शायद ये मकान भी जानता है ।

जब मैं छोटा था तो मकान कि ड्योढि़याँ
एक सुद्र्ढ़ युवा सीने सी तनी रहती थी
और मेरा निर्बाध आवागमन रहता था
शायद उन्हें खड़े रहने का पितृ - आदेश था ।

फ़िर जब मैं युवा हुआ तो मकान कि ड्योढि़याँ
युवावस्था कि सीमायें लाँघ चुकी थीं और
चल रहीं थीं संध्या के रवि कि तरह ।


फ़िर एक दिन मैं पितृ -स्मृति को अकेला छोड़
तरक्की के लिए गाँव से शहर कि और मुड गया
और अब एक अरसे बाद इसे बेचने आया हूँ
तो न चाहते हुए भी सोचने को विवश हो गया हूँ
कि जब धीरे - धीरे मेरे श्यामल केश
उम्र के साथ श्वेत परिधान पहन चुके हैं
तो ड्योढि़यों को भी घुन और दीमक ने
धीरे - धीरे पूर्णतया आलिन्गंबध कर लिया है ।


और जब मैं ड्योंढियों कि ओर देखता हूँ
तो मेरी नज़र ख़ुद - ब - ख़ुद झुक जाती है
मैं न जाने क्यों ड्योढियों नज़र नहीं मिला पा रहा हूँ ।



" देखो हम तुम्हारी पितृ -स्मृति हैं "
हमने अपना हर कर्तव्य सत्यता से निभाया है
फ़िर हम तो तुम्हारे बचपन कि धरोहर हैं
तुम्हारे पिता कि स्नेह - स्मृति हैं ।
आदमी के साथ स्मृति जीवन तक रहती है
सो हम भी तुम्हारे साथ तब तक रहेंगी ।
जब तुम दन्त विहीन हो जाओगे
तो हम भी कपाटहीन हो जायेंगी
और जब तुम्हारी कमर झुक जायेगी
तो हम भी स्वतः झुक जाएँगी
और जिस दिन हम गिरेंगी उस दिन तुम भी ..................... ।



बस बात अधूरी ही सोचकर मैंने दिमाग को झटका
शरीर कि फुरफुरी को मन से निकला
खड़े रोंगटे को हाथ से सहला , कान पे हाथ रखे
क्योंकि सत्यता सुनने का मनुष्य आदी नही होता ।

( उपरोक्त कविता कवि दीपक शर्मा जी के काव्य संकलन मंज़र से ली गई है )

सर्वाधिकार सुरक्षित @ कवि दीपक शर्मा

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