Monday, April 6, 2009

यतीम

ये छोटे - छोटे से चेहरे
ये नाज़ुक तन, ये कोमल बदन
इन फूलों जैसे मासूमों के
सहमे - सहमे सकुचे बचपन ।

ये घोंट गला अरमानों का
ये तोड़ जिग़र आशाओं का
माँ के सानिध्य से बहुत दूर
ये हाथ पकड़ विपदाओं का
नयनों में लेकर शुष्क नीर
ह्रदय में शूल सी चुभती पीर
न सिर पे हाथ , न कोई साथ
ये बेदर, बेवज़ूद , ये बिन नीड़ ।

ये यतीम ये मासूम इतने ग़म कैसे पीते हैं
कितने ख़ामोश से रहते हैं , कितने ख़ामोश जीते हैं ॥

कोई इनको लावारिस कहता
कोई कहे औलाद नाजायज़ है
कोई कहे , खा लिये माँ - बाप
ये इसी सलूक के लायक हैं
कोई इनको गाली देता है
कोई इनको ताने देता है
कोई जान बूझ कर देता है
और कोई अनजाने देता है ।
लेकिन इसमें दोष कहाँ , इन मासूमों का, नादानों का
किस्मत लिखना काम नहीं, इंसानों की इंसानों का ॥

इनकी खातिर न सुबह हुई
न कोई रात, न कोई शाम
न धर्म पता, न कथा बंची
न रखा गया कोई भी नाम
गुदड़ तक नहीं इन लालों पर
तन पर भी नहीं पूरी कतरन
इन फूलों जैसे मासूमों के
सहमे - सहमे सकुचे बचपन


( उपरोक्त नज़्म कवि दीपक शर्मा के काव्य संकलन फलक दीप्ती से ली गई है )

(सर्वाधिकार सुरक्षित @ कवि दीपक शर्मा )

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