Tuesday, April 7, 2009

नहीं समय किसी का साथी रे !

नहीं समय किसी का साथी रे !

मत हँस इतना औरों पर कि
कल तुझको रोना पड़ जाये
छोड़ नर्म मखमली शैय्या को
गुदड़ पर सोना पड़ जाये
हर नीति यही बतलाती रे !
नहीं समय किसी का साथी रे !

तू इतना ऊँचा उड़ भी न कि
कल धरती के भी काबिल न रहे
इतना न समझ सबसे तू अलग
कल गिनती में भी शामिल न रहे
प्रीती सीख यही सिखलाती रे !
नहीं समय किसी का साथी रे !

रोतों को तू न और रुला
जलते को तू ना और जला
बेबस तन पर मत मार कभी
कंकड़ , पत्थर , व्यंग्यों का दल
अश्रु नहीं निकलते आँखों से
जीवन भर जाता आहों से
मन में छाले पड़ जाते हैं
अवसादों के विपदाओं से
कुदरत जब मार लगाती रे !
नहीं समय किसी का साथी रे !

इतना भी ऊँचा सिर न कर
औरों का कद बौना दिखे
इतनी भी ना कर नीचे नज़र
हर चीज़ तुझे नीची दिखे,
खण्ड - खण्ड अस्तित्व हो जाता है
पर लोक, ब्रह्माण्ड हो जाता है
साँसों कि हाट उजाड़ जाती
जब संयम प्रचंड हो जाता है
हर सदी यही दोहराती रे !
नहीं समय किसी का साथी रे !

इतना मत इतर वैभव पर
अस्थिर धन के गौरव पर
पाण्डव का हश्र तुझे याद नहीं
ठोकर खायी थी पग - पग पर
मत हीन समझ औरों को तू
मत दीन समझ औरों को तू
मत हेय दृष्टि औरों पर डाल
मत वहम ग़लत ह्रदय में पाल
पल में पासा फ़िर जाता है
जब प्रकति नयन घुमती रे !
नहीं समय किसी का साथी रे !

काया पर ऐसा गर्व ना कर
यौवन का इतना दंभ न भर
ना नाज़ कर इतना सुन्दरता पर
द्रग पर, केशों पर, अधरों पर
है नहीं ये कोई पूंजी ऐसी
जो आयु के संग बढती जाये
जैसे - जैसे चड़ती है उमर
ये वैसे - वैसे घटती जाये
अस्थि - अस्थि झुका साथी रे !
नहीं समय किसी साथी रे !

मत भाग्य किसी का छीन कभी
दाना हक़ से ज्यादा न बीन कभी
चलता रह अपनी परिधि में
पथ औरों का मत छीन कभी
वरना ऐसा भी तो हो जाता है
दाना अपना भी छिन जाता है
परिधि अपनी भी छुट जाता है
और भाग्य ही जड़ हो जाता है
जब एक दिन गगरी भर जाती रे !
नहीं समय किसी का साथी रे !

( उपरोक्त गीत कवि दीपक शर्मा के काव्य संकलन फलक दिप्ति से ली गई है )

(सर्वाधिकार सुरक्षित @ कवि दीपक शर्मा )

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