Saturday, April 25, 2009

मैं बिखर रहा हूँ

मैं बिखर रहा हूँ मेरे दोस्त संभालो मुझको ,
मोतिओं से कहीं सागर की रेत न बन जाऊँ
कहीं यह ज़माना न उडा दे धूल की मानिंद
ठोकरें कर दें मजरूह और खून मे सन जाऊँ ।

इससे पहले कि दुनिया कर दे मुझे मुझ से जुदा
चले आओ जहाँ भी हो तुम्हे मोहब्बत का वास्ता
मैं बैचैनियो को बहलाकर कर रहा हूँ इन्तिज़ार
तन्हाइयां बेकरार निगाहों से देखती हैं रास्ता ।

बहुत शातिराना तरीके से लोग बात करते हैं ,
बेहद तल्ख़ अंदाज़ से ज़हान देता है आवाज़
मुझे अंजाम अपने मुस्तकबिल का नहीं मालूम
कफस मे बंद परिंदे कि भला क्या हो परवाज़ ।
अपनी हथेलियों से छूकर मेरी तपती पेशानी को
रेशम सी नमी दे दो , बसंत की फुहारे दे दो
प्यार से देख कर मुझको पुकार कर मेरा नाम
इस बीरान दुनिया मे फिर मदमस्त बहारें दे दो ।

आ जाओ इससे पहले कि चिराग बुझ जायें
दामन उम्मीद का कहीं ज़िन्दगी छोड़ न दे ,
सांस जो चलती हैं थाम कर हसरत का हाथ
"दीपक" का साथ कहीं रौशनी छोड़ ना दे ।

सर्वाधिकार सुरक्षित @कवि दीपक शर्मा

http://www.kavideepaksharma.co.in
http://shayardeepaksharma.blogspot.com


2 comments:

  1. हादसों की कोई तारीख नहीं होती!
    आपकी नज्मे अनमोल हैं तारीफ नहीं होती!
    सूरज को दिखाना होगा दीपक मेरा !!
    नहीं नहीं मुरारी पारीक....!!! नहीं होती !!

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  2. वो बुझते हुए चिराग
    स्वागत करते हैं आँधियों का
    यूँ भी मेरे घर को
    रोशनी की ज़रूरत ना थी ....
    आपकी दोनो कविताएँ
    बुधम शरणं गच्छामि , और मॅ बिखर रहा हूँ..
    बहुत अच्छी हैं ....

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