Monday, April 6, 2009

मैं भी चाहता हूँ

मैं भी चाहता हूँ की हुस्न पे ग़ज़लें लिक्खूं
मैं भी चाहता हूँ की इश्क के नगमें गाऊँ
अपने ख्वाबों में उतारूँ एक हसीन पैकर
सुख़न को अपने मरमरी लफ़्जों से सजाऊँ

लेकिन भूख़ के मारे, ज़र्द बेबस चेहरों पे
निगाह जाती है तो जोश काफू़र हो जाता है
हर तरफ हकीक़त में क्या तसव्वुर में
फ़कत रोटी का ही सवाल उभर कर आता है

ख़्याल आता है जे़हन में उन दरवाजों का
शर्म से जिनमें छिपे हैं जवान बदन कितने
जिनके तन को ढके हैं हाथ भर की कतरन
जिनके सीने में दफ़न हैं, अरमान कितने
जिनकी डोली नहीं उठी इस खातिर क्योंकि
उनके माँ -बाप ने शराफ़त की कमाई खाई है
चूल्हा एक बार ही जला हो घर में लेकिन
सिर्फ़ मेहनत की खाई है , मेहनत की खिलाई है

नज़र में घुमती है शक्ल उन मासूमों की
ज़िन्दगी जिनकी अँधेरा, निगाह समंदर है,
वीरान साँसे , पीप से भरी , धँसी आँखें
फाकों का पेट में चलता हुआ खंज़र है
माँ की छाती से चिपकने की उम्र है जिनकी
हाथ फैलाये वही राहों पे नज़र आते हैं
शोभित जिन हाथों में होनी थी कलमें
हाथ वही बोझ उठाते नज़र आते हैं


राह में घूमते बेरोज़गार नौजवानों को
देखता हूँ तो कलेजा चीख़ उठता है
जिनके दम से कल रौशन ज़हान होना था
उन्हीं के सामने काला धुँआ सा उठता है


फ़िर कहो किस तरह हुस्न के नग्में गाऊँ
फ़िर कहो किस तरह इश्क पे ग़ज़लें लिक्खूं
फ़िर कहो किस तरह अपने सुखन में
मरमरी लफ़्जों के वास्ते जगह रखूं

आज संसार में गम एक नही हज़ारों हैं
आदमी हर दुःख पे तो आंसूं बहा नही सकता
लेकिन सच है की भूखे होंठ हँसेंगे सिर्फ़ रोटी से
मीठे अल्फाज़ से कोई मन बहला नहीं सकता


( उपरोक्त नज़्म कवि दीपक शर्मा के काव्य संकलन फलक दीप्ती से ली गई है )

(सर्वाधिकार सुरक्षित @ कवि दीपक शर्मा )

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