Monday, April 6, 2009

मयकश

लब तलक पैमाना लाने से पहले
याद कर मयकश अपने घर के मोहरे
फ़ाकों से टूटती बीवी की नफ़स
दाने - दाने को तरसते तेरे मोहरे

याद कर चीर में लिपटी हुई बीवी की शक़्ल
जिसने हाथों से उठाई है कै तेरी
तेरे हर ग़म पे गिराएँ हैं जिसने आँसूं
हँस के दामन में समेटी हैं तकलीफ़ें तेरी
तेरी बीमारी पे जिसने कड़कती रातें
जाने कितनी दफ़ा आंखों में गुजारी होंगी
तेरी एक झूटी कराह पे भी जिसने
मन्नतें मांगी होंगी , नज़रें उतारी होंगी

अरे ! मयक़्श तेरी श़ग्ले - मैजोशी ने
सोच क्या हालत तेरे घर की बना दी है,
तुझको और तेरे घर के हर श़ख्श को
एक रोटी भी ताज सा ख़्वाब बना दी है

मानता हूँ तेरा भी कोई ग़म होगा
लेकिन हर गम का मुदावा पैमाना तो नहीं
किसी ख्वाब के बिखर जाने का मतलब
ज़हर पीकर ज़िन्दगी मिटाना तो नहीं
सोच उन मासूमों का क्या मुस्तकबिल है
तेरी हर घूंट में शामिल है हक जिनका
गंदे ढेरों में तलाशते हैं जो ज़िन्दगी अपनी
एक टुकडा ही हसरत है, आरजू है जिनका

झाँककर देख एक बारगी उनकी निगाहों में
ज़िन्दगी किसी कोने में आंसू बहा रही होगी
घर के चूल्हे को जलते देखने की हसरत
कहीं बार - बार सिर अपना उठा रही होगी

इससे पहले कि तेरे होंठ जाम छू जायें
आगे बाद और तोड़ दे मय का प्याला
अरे मदहोश ! है प्याले के अन्दर अँधेरा
गौर से देख है बहार हँसता उजाला


( उपरोक्त नज़्म कवि दीपक शर्मा के काव्य संकलन फलक दीप्ती से ली गई है )

(सर्वाधिकार सुरक्षित @ कवि दीपक शर्मा )

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