सागर के तट पर रेत के मैंने और तुमने
जो घरोंदें स्नेह के बनाये थे कभी
नयनों में अपनी कल्पनाओं के दीपक
साथ मिलकर जिस जगह जलाये थे कभी ।
अब वहां कुछ भी नज़र आता नहीं
बस टूटती लहरों के साये दीखते हैं ॥
कुछ पथिक , कुछ लहरों के क़दमों तले
स्वप्न सारे रेत हो रेत में मिल गये
रोंद कर घरोंदे निर्दयी पग के कारवां
काफिलों के रूप धर दूर निकल गये ।
गीत कोई मांझी अब वहां गाता नहीं
बस ह्रदय तड़पता है और अश्रु चीखते हैं ॥
अब नही वो अठखेलियाँ जिसकी फिजा में
आवाज मेरी आरजू की गूँजती थी
अब नही वहां लगते मेले चुहल के
ज़िन्दगी कल बेफिक्र जहाँ घुमती थी ।
अब पाँव लहरों में वहां कोई भिगोता नहीं
बस लहरें टकराती हैं और पत्थर भीगते हैं ।
दरख्त भी खामोश से उजड़े खड़े हैं
छाँव में जिनकी कभी बैठे थे हम तुम
घास जो चुभती थी बदन में मखमल सी
अब आँख बंद करके वहां खड़ी है गुमसुम
तिनका कोई तोड़ के मुंह में रखता नहीं
बस सीना उस जगह का पैर रौंदते हैं ।
( उपरोक्त नज़्म कवि दीपक शर्मा के काव्य संकलन फलक दीप्ति से ली गई है )
(सर्वाधिकार सुरक्षित @ कवि दीपक शर्मा )
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