Saturday, September 8, 2018

Poetry By Kavi Deepak Sharma

हम अपने  मजहब का खुद ही मज़ाक उड़वाते  हैं,
 गर बात ये  गैर मजहबी कह  दे तो दंगे हो जाते हैं। 

हमारी आदमियत की यही पहचान  है  सदियों से 
इबादतगाहें जो आज  मंदिर - मज्जिद कहलाते हैं।  

अगर मजहब ही सब है तो क्यूँ अमन नही जग में 
क्यूँ  बंदूकें आग उगलती हैं  क्यूँ  बम फट  जाते हैं।  

बदल  कर नाम अपना तार्रुफ़ गिनती बना लो तुम
नाम सुनके सभी ज़ज्बात कहीं क्यूँ हो फुर्र जाते हैं।  

खाक़ पानी और आग़ में सब दुनिआ सिमट जाती 
सब एक जैसे  हो जाते  हैं  एक  ही हो सब जाते हैं। 

पण्डित ,मौलवी, इमाम ,पादरी  क्या  ग्रंथी-ग्यानी 
अरे किसने  देखा  है ये  सारे  सीधे  जन्नत जाते है । 

धोती टोपी चोटी दाढ़ी  फ़क़त  रूप  पहनावा  है 
न जाने इनसे रिश्ते कब मज़हब के  जुड़ जाते हैं। 

क्या अजान देने भर से कोई मौलाना बन जाता है     
जबकि मतलब आयत के मियाँ बतला नही पाते हैं । 

मन्दिर में मूरत नहला के पंडित नहीं बनता कोई  
सब कथा वांचने भर से क्या साधू संत बन जाते हैं । 

“दीपक' सुनते  आये  हैं   न जाने कितनी  सदियों से  
इन्सानों  को जो  भी पूजे  वो   भगवान्  कहलाते हैं । 

@ Deepak Sharma

No comments:

Post a Comment