"राखी की गुहार "
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"राखी की ऐवज़ में भैय्या,मुझे नहीं चाहिए गहना।
बस थोड़ी सी आज़ादी दे दो, विनती करती बहिना।।
गिद्द  नज़र से  बची रहूँ ,बस कुछ ऐसा कर दो।
अपने घर में रहूँ  सुरक्षित,मुझे एक ऐसा घर दो।
खुली  हवा में मेरे भईया, में भी चाहती हूँ रहना।
बस थोड़ी सी आज़ादी दे दो,विनती करती बहिना।।
कोई बस में, कोई रेल में , कोई नित कार  में चलती ,
रौंद रहा रोज़ अस्मत मेरी,कहो कहाँ मेरी ग़लती।
अपने घर में हर लड़की है अपने बाबुल की मैना।
बस थोड़ी सी आज़ादी दे दो विनती करती बहिना।।
रक्षा की परिभाषा बदलो,दो इज़्ज़त मर्यादा थोड़ी।
मान कहो इसको मेरा  या समझो याचना  मोरी।
सदियों से मैं सहती आई और नहीं अब सहना।
बस थोड़ी सी आज़ादी दे दो विनती करती बहिना।।
रिश्तों  से बहुत भय लगता है, हर  रिश्ता ओछा है।
जन्म दिया जिस पिता ने,उसने भी तन को नोंचा है।
और किसी रिश्ते की बाबत और भला क्या कहना ।
बस थोड़ी सी आज़ादी दे दो,विनती करती बहिना।।
कोई कोख़ में मार रहा  तो कोई दहेज के कारण।
कोई करे हलाला मेरा तो छोड़े  लगा कर  लांछन।
मुझे बताओ इस दोज़ख़ में आख़िर कब तक रहना।
बस थोड़ी सी आज़ादी दे दो,विनती करती बहिना।।
बातों से सब राम हैं बनते, पर भीतर से दानव,
तनभक्षी नर मुझको लगता,धरती का हर मानव।
खो जाऊँगी एक दिवस मैं ,फिर मुझे ढूँढते रहना।
थोड़ी सी आज़ादी दे दो,विनती करती है बहिना।।
जब कल न रहूंगी कौन भला घर आँगन देखेगा।
भाई बहिन और माँ बाप को गर्म रोटियाँ  सेकेगा।
सूनी कलाई लिये उमर भर फिर  तुम  रोते रहना।
थोड़ी  सी आज़ादी दे दो ,विनती करतीं है बहिना।।
@ दीपक शर्मा